प्र. – अपराधरहिता पतिपरायणा माता सीता का श्रीराम द्वारा कृत निर्वासन काल्पनिक (प्रक्षिप्त) है अथवा वास्तविक?
और यदि वास्तविक भी है तो क्या यह एक पति/नृपति के रूप में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के लिए उचित है?
उ. – इस विषय पर अनेक विचार पाये जाते हैं।कोई कोई तो न रहेगा वांस न बजेगी बासुरी वाले भी हैं, कि जब उत्तर काण्ड ही प्रक्षिप्त है। तो उसमें वर्णित सीता त्याग स्वतः आरोपित है।लो झंझट ही समाप्त।
परन्तु सत्येतिहास तो सहानुभूति भावुकता या कोरी प्रशंसा पाने से मिट नहीं सकता।
विचार करें कि सीता जी के बाल्मीकि आश्रम में मिथ्यापवादपूर्वक निर्वासित होकर रहने से अयोध्या को लाभ हुआ या हानि?
सीताजी का यश घटा या बढा?
जगत् का हित हुआ या अहित?श्रीराम को प्रसंशा मिली या निंदा?
जिसने भी सीताजी पर आरोप लगाया वह कौन था?
इन सभी पक्षों पर दृष्टिपात करें और निर्णय पाठक स्वयं करें कि सत्य क्या है?
बा.रा.उ.का.
सीमन्तोन्नयन संस्कारार्थ गुर्विणी सीता जी के समीप (अशोकवनिका में) आकर श्रीराम ने एक पौष्टिक दिव्य पेय अपने हाथों से पिलाया।
स्वहस्तेन काकुत्स्थः सीतां पाययामास।42/18
परमप्रेमपीयूषपूर्णार्द्रचेता राघव बोले हे वरारोहे! आपकी प्रसन्नता के लिए आपकी क्या इच्छा पूर्ण करूं?
किमिच्छसि वरारोहे कामः किं क्रियतां तव।42/31

जनकजा माता सीता मन्दस्मिति पूर्वक बोली हे प्राणेश! यदि आप मुझपर अतिप्रसन्न हैं – तो मुझे आज्ञा दें । मेरी गंगाजी जाकर संतदर्शन की तथा संतों के समीप (वर्तितुम्) रहने की बडी अभिलाषा है ।
एष मे परमः कामः।
अधिक समय की अनुमति न हो तो कमसे कम एक रात्रि तो अवश्य।
(अप्येकरात्रिम्)
भगवान् श्रीराम ने सहमति देकर प्रस्थान किया।
राजसभा में भद्र (गुप्तचर)से ज्ञात हुआ कि समाज में चौराहों,बाजारों मार्गों वनोपवनों में मेरे शौर्य वीर्य औदार्य माधुर्य नीतिज्ञता मनोज्ञता की तो प्रशंसा है परन्तु सीताजी के विषय में अपवाद चल रहा है।
“स्वर्णमयी लंका में रावण जैसे शक्तिशाली प्रभावी राक्षस के घर इतने समय तक रहने पर भी क्या सीता सुरक्षित रही होगी”
फिर भी राम ने पुनः स्वीकार कर लिया सीता को।
यथा राजा तथा प्रजा अब तो सभी को ऐसा करना पडेगा।
यथा हि कुरुते राजा प्रजा तमनुवर्तते।43/19
श्रीराम का मुखकमल मुरझा गया।सभा विसर्जित कर चिन्ता में डूबे साश्रूपूरित नयन राघव सीताजी के माथे पर लगे इस मिथ्या कलंक को मिटाने की दिशा में सोचने लगे।
अरे ये क्या? इन्द्र वरुण अग्नि वायु जैसे देवताओं ने जिस सीता की पावनता का अनुमोदन किया,ब्रह्मा शिव स्वयं पिता दशरथ प्रमाण रहे।

सुग्रीव विभीषण जैसे शासक असंख्य वानर आदि जिसके साक्षी रहे ,जिसकी सच्चाई में स्वयं जानता हूं ।आज वही तपस्विनी साध्वी सत्यशीला सीता कुछ नासमझ लोगों के कारण कलंकित जीवन जीयेगी।
अन्तरात्मा च मे वेत्ति सीतां शुद्धां तपस्विनीम्।45/10
बस श्रीराम ने मन में ठान लिया कि सीता गंगातटवर्ती संतों के पास जाना भी चाहती हैं। अतःअब सीता के कलंकमार्जन का यही सम्यक् उपाय है।सीता वन में तप करें और मैं भवन में।समय आने पर संसार सच्चाई भी जान ही लेगा।राजसत्ता के बल पर में दण्डादि द्वारा प्रयत्न भी करू कि लोग चुप रहें तो कभी सफलता न मिलेगी,पर हां यदि महर्षि बाल्मीकि जैसे सत्यनिष्ठ त्रिकालज्ञ तपस्वी समाज के सम्मुख सीता की पवित्रता घोषित करेंगे तभी समाधान होगा।उपचार थोडा दुखद है पर है अचूक।भाईयों के समक्ष श्रीराम ने कहा-संसार में अपयश मृत्यु से भी बढकर होता है।अकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।
लोकनिंदा के भय से मैं अपने प्राणों को,प्राणातिप्रिय आप सभी भाईयों को भी त्याग सकता हूं।फिर प्रियतमा सीता की तो बात ही क्या है?
अप्यहं जीवितं जह्यां युष्मान् वा पुरुषर्षभाः।
अपवाद भयात्भीतः किं पुनर्जनकात्मजाम्।।45/14
श्रीराम की प्रतिज्ञा भी है कि मुझे लोक की प्रसन्नता के लिए स्नेह दया सौख्य तथा सीता जी को भी त्यागने में किंचिदपि व्यथा न होगी।
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति मे व्यथा।।
परिणाम आप जानते हैं लक्ष्मण द्वारा महर्षि बाल्मीकि आश्रम के समीप गंगातट पर सीताजी को छुडवा दिया।सीता यही सोच रही हैं कि गंगास्नानार्थ आये हैं…परन्तु हाय रे दैव!

प्रमाण नं.-1

अध्यात्मरामायण उत्तरकाण्ड चतुर्थसर्ग
एक दिन सीताजी ने एकान्त में श्रीरामजी से निवेदन किया -हे देव! देवगण मुझसे आपके वैकुण्ठागमन हेतु बारम्बार निवेदन करते हैं।
वे कहते हैं हे चिच्छक्ति रूपे रमे आप यदि पहले वैकुण्ठ पधारें तो आपके पीछे नारायण भी पधारेंगे।
देव देवाः समासाद्य मामेकान्तेsब्रुवन्वचः।
बहुशोsर्थयमानास्ते वैकुण्ठागमनं प्रति।।4/36
अग्रतो याहि वैकुण्ठं त्वं तथा चेद्रघूत्तमः आगमिष्यति..।4/37
श्रीराम जी बोले- देवि मैं सब जानता हूं ।उपाय सुनो.. मिथ्या कलंक का बहाना करके सांसारिक अपयश के भय से सामान्य स्त्री की भांति तुमको वन में त्याग दुंगा।बाल्मीकि आश्रम में तुम दो बालकों को जन्म दोगी।
अनन्तर तुम लोकविश्वासार्थ शपथ पूर्वक भूमार्ग से वैकुण्ठ चली जाओगी।तदनन्तर मैं भी आ जाऊंगा।यही सहज सुनिश्चित उपाय है।
देवि जानामि सकलं तत्रोपायं वदामि ते।
कल्पयित्वा मिषं देवि लोकवादं त्वदाश्रयम्।।4/41
त्यजामि त्वां वने लोकवादाद्भीत इवापरः।
भविष्यतः कुमारौ द्वौ बाल्मीकेराश्रमेन्तिके।।4/42
लोकानां प्रत्ययार्थं त्वं कृत्वा शपथमादरात्।।4/43
भूमेर्विवरमात्रेण वैकुण्ठं यास्यसि द्रुतम्।
पश्चादहं गमिष्यामि एष एव सुनिश्चयः।।4/44
वनवास की योजना है श्री सीताराम की ,व्यर्थ पीडित हैं कुतर्की,लूटना चाहते हैं मिथ्या सहानुभूति,शास्त्रावज्ञा करके अर्जित कर बैठते है पाप,बाद में बचता है केवल हाथ मलना और पछताना।
सीता निर्वासन भी राम वनवास की भांति ही जगत कल्याणार्थ है।

कारण नं. 2″”शुकी शाप “”

पद्मपुराण पाताल खंड 57वां अध्याय-
एक बार जनकपुर में अविवाहित सीता ने शुकशुकी के संवाद में सुना कि इस सीता का विवाह अवधाधिपति महाराज दशरथ के ज्यैष्ठापत्य श्रीराम से होगा।सीताजी ने औत्सुक्यवशात शुकी को पकड लिया तथा बोली जब तक तेरी बात सच न होगी तुम यही रहो।
शुकी गर्भिणी थी उसकी प्रार्थना पर सीता ने बाल्यवश ध्यान नहीं दिया।तब शुकी ने शाप दिया।
हे सीते! जैसे आज गर्भावस्था में तुम मुझको मेरे पति से दूर कर रही हो,वैसे ही गर्भावस्था में तुम भी राम द्वारा त्यागी जाओगी।
यथा त्वं पतिना सार्धं वियोजयसि मामितः।
तथा त्वमपि रामेण विमुक्ता भव गर्भिणी।।
ऐसा कहते ही शुकी मर गयी।शुकी के वियोग में शुक ने भी गंगा में प्राणोत्सर्ग किया,अवध में धोवी बनकर आया तथा पूर्वजन्मस्मृतिविवश सीता जी पर मिथ्या लांछन लगाया।

कारण नं.-3

विष्णुभगवान् को महर्षि भृगु का शाप
महर्षि भृगु भार्या ने शरणागत दैत्यों रक्षा की परिणामतः भगवान् विष्णु ने पुलोमा (भृगुपत्नी) का शिर काट दिया।
चक्रेण शितधारेण भृगुपत्न्याः शिरोsहरत्।51/13 बा.रा.उ.का.
भृगुजी ने शाप दिया जाओ विष्णो! तुम भी मानव बनकर अनेक वर्ष तक स्त्रीवियोग का कष्ट सहोगे।
तत्र पत्नीवियोगं त्वं प्राप्स्यसे बहुवार्षिकम्।।बा.रा.उ.का.51/15

कारण नं.-4

श्री नारद शाप
एक बार श्री नारद जी को कामविजयी होने का गर्व हो गया,विधि शिव विष्णु तक आत्मश्लाघा करने लगे।तब भगवान की माया के चक्र में फंसकर एक राजकुमारी से विवाह की इच्छा कर बैठे।श्री हरि से हरिरूप मांगकर बोले कि स्वयंवर में जाना है।कृपा बनाये रखना।
जेहि विधि नाथ होय हित मोरा ।
करहु सो बेगि दास मैं तोरा।।132/7
श्री हरि ने भक्तरक्षणव्रतपरिपालनार्थ हरि(वानर)रूप दे दिया।
और स्वयं राजकुमार बनकर विवाह कर लिए,तब नारदजी ने क्रोधवश शाप दे दिया।
बंचेहु मोहि जबन धरि देहा।
सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी।
नारी विरह तुम्ह होब दुखारी।।
रा.च.मा.बा.का.137/6-8

कारण नं. -5

नानापुराणनिगमागमसम्मत श्रीमद्रामचरितमानसकार कलिपावनावतार आस्तिकजगत के परमप्रामाणिक आदर्श कृतभगवत्साक्षात्कार श्री तुलसीदास जी द्वारा सृजित गीतावली 7/25 में सीताजी के निर्वासन का अद्भुत कारण बताया है।
तुलसी कहते हैं-कि महाराज दशरथ अपनी आयु पूर्ण होने से पूर्व ही श्रीरामविरहजन्यवेदनावश संसार से चले गये।श्रीराम जब रावणवधादिरूप उद्देश्यपूर्त्यर्थ प्राप्त अपने सुनिर्धारित समय को पूर्ण कर लिए तब महाराज दशरथ का शेष समय उनको लोकमंगलार्थ लोकरंजनार्थ मानवोचित मर्यादा स्थापनार्थ प्राप्त हुआ।
अब भला अपने पिता की प्राप्त आयु से सीतासंग कैसे उचित हो सकता है।अतः सीता जी से परामर्श करके सीता जी को महर्षि बाल्मीकि आश्रम में भेजा।
अब आप श्री तुलसीदास जी को प्रामाणिक माने या नहीं माने आप स्वतंत्र है,क्योंकि सबसे बडे ज्ञानी जो ठहरे।
यह उचित भी है जिसका आश्रय लेकर ऊचाईयां चढो उनको गिराये बिना दूषित किये बिना सबसे बडे बनने का मिथ्याभिमान तृप्त कैसे होगा।

कारण नं. -6

यदि सीता परित्याग काल्पनिक है? तो क्या अश्वमेधादि यज्ञ सम्पादनार्थ यजमानपत्नी के रूप में स्वर्णसीता की चर्चा ऐसे ही पुराणान्तरों में वर्णित है?
यज्ञे यज्ञे च पत्न्यर्थं जानकी कांचनी भवत।।99/8 बा.रा.उ.का

कारण नं.-7

सीता निर्वासन के प्रसंग पर ब्रह्मविद्वरिष्ठ परमवीतराग सर्वभूतहृदय भक्तिज्ञानवैराग्य की साक्षात्मूर्ति श्रीशुकदेवमुनि भागवत कथा के अन्तर्गत रामकथा सुनाते हुए कहते हैं- हे राजन्! क्रूरात्मा रजक ने अपनी पत्नी को डाटते हुए कहां कि मैं स्त्रीलोभी राम नहीं हूं जो पराये घर में रहने वाली तुझ दुष्टा असती का पालन करूं। दुराराध्य अतत्वज्ञ समाज के मुख से
ऐसा दारुण वृत्तान्त सुनकर लोकभयपीडित श्रीराम ने सीताजी को बाल्मीकि आश्रम में छोड दिया।
नाहं विभर्मि त्वां दुष्टामसतीं परवेश्मगाम्।
स्त्रीलोभी विभृयात् सीतां रामो नाहं भजे पुनः।।
इति लोकात् बहुमुखात् दुराराध्यादसंविदः।
पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम्।।
श्रीमद्भागवत्पुराण
9/11/9-10

कारण नं.-8

यदि सीता निर्वासन काल्पनिक है तो क्या महर्षि बाल्मीकि की प्रतिज्ञा भी काल्पनिक होगी?
कि “यदि सीता के चित्त में रंचमात्रमपि दूषण हो तो मुझे मेरी सहस्रों वर्षों की तपस्या फल न मिले”
बहुवर्षसहस्राणि तपश्चर्या मया कृता।
नोपाश्नीयां फलं तस्या दुष्टेयं यदि मैथिली।।96/20 बा.रा.उ.का.
ऐसा सुनकर श्रीराम का यह कथन “निष्पाप होने पर भी लोकभय से यह सती सीता मेरे द्वारा त्यागी गयी हे महर्षे मुझे क्षमा करें” काल्पनिक है क्या?
सेयं लोकभयाद्ब्रह्मन्नपापापि सती पुरा।
सीता मया परित्यक्ता भवांस्तत्क्षन्तुमर्हति।। 7/36
अध्यात्मरामायण उत्तरकाण्ड।

कारण नं.-9

भरी सभा में माता सीता की प्रतिज्ञा तथा धरती माता का प्रकट होकर सिंहासनारूढ कर सीता को ले जाना भी काल्पनिक है क्या?
अध्यात्मरामायण उत्तर काण्ड सप्तम सर्ग
सीता – यदि मैंने राम के अतिरिक्त मन से भी किसी का चिंतन न किया हो तो ये मेरी धरती माँ मुझे अपना अंकस्थान प्रदान करे।
रामादन्यं यथाहं वै मनसापि न चिन्तये।
तथा मे धरणी देवी विवरं दातुमर्हति।। 7/40

प्रमाण नं. 10

सीतानिर्वासन का संकेत अनुक्रमणिका में भी महर्षि बाल्मीकि ने दिया है।
वैदेह्याश्च विसर्जनम्।।
बा.रा.बा.का.3/38
जैमिनीयाश्वमेध में भी सीताविवासन का प्रसंग वर्णित है।
किस किसको काल्पनिक कहकर सच्चाई से पलायन करोगे?
क्या इतने प्रमाण कम हैं?
अरे भाई! सीताजी को त्यागकर राम सुखपूर्वक रहे होते अथवा अन्य विवाहादि किये होते तो तथाकथित सीतासमर्थक वृन्द का आक्षेपपूर्ण उत्पात करना समझ में भी आता।
सामान्य मानवीय भाव से सीता राम को नायक नायिका समझने वाले ये भी तो समझे कि –
गिरा अरथ जल वीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
वंदहु सीता रामपद जिनहि परमप्रिय खिन्न।।
जो शब्द और अर्थ के समान भिन्न से दिखते हैं पर भिन्न हैं नहीं अभिन्न है।
जैसे जल तथा तरंग भिन्न से दिखते हैं पर भिन्न न होकर अभिन्न ही है,एक ही हैं ।
वैसे ही सीताराम भी दो रूप में लीलार्थ दिखते मात्र हैं परन्तु हैं एक ही।

जो नारायण परमात्मा अथवा भगवान संज्ञा से संवेद्य संवोध्य है।
वह कलातीता भगवती सीता ही तो है।
यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवान्।
कलातीता भगवती सीतेति चित्स्वरूपा।।
(तार.उ.पा. 3)
श्रीराम की आज्ञा से सीताजी हनुमानजी को उपदेश कर रही हैं।
हे वत्स!
राम को अद्वय सच्चिदानंद ब्रह्म,
और मुझे सर्गस्थित्यन्तकारिणी मूलप्रकृति जानो।
रामं विद्धि परं ब्रह्म सच्चिदानंदमद्वयम्।
मां विद्धि मूलप्रकृतिं सर्गस्थित्यन्तकारिणीम्।।
अ.रा.बा.का.1/32-34
शास्त्र भरोसे शांत बुध,
वंदनीय सब संत।
शंका जिन के उर वसी,
उनके भी हरि कंत।।